भारतीय नववर्ष- गौरवशाली परम्परा का प्रतीक
25 मार्च 2020(बुध.) को नव विक्रम संवत का आरम्भ होगा। पुराणों तथा शास्त्रों के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि की रचना का श्रीगणेश हुआ था। इस तिथि को 'प्रवरा तिथि' भी कहकर संबोधित किया गया है।
भारत में अनुमोदित संवत, विक्रम संवत है। राष्ट्रीय संवत का सूत्रपात विक्रम संवत के उपरांत हुआ। राष्ट्रीय संवत का गठन सौर वर्ष की गणना के अनुरूप हुआ, अन्यथा प्रथागत रूप से इसमें एवम् विक्रम संवत में कोई विशेष अन्तर नहीं है। राष्ट्रीय संवत के नाम से प्रचलित शक संवत को 1957 में भारत सरकार ने देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में स्वीकृति प्रदान की थी। पारम्परिक कालगणना का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है तथा पुराणों एवम् शास्त्रों के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की रचना आरम्भ हुई। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जिस दिन इस दिशा में पहल हुई, वही संसार का प्रथम दिवस था। सृष्टि रचना का प्रथम दिवस ही वर्ष प्रतिपदा कहलायेगा। वृक्ष, लता एवम् पुष्पों से आच्छादित जब प्रकृति का आगमन हुआ होगा, तो आह्लाद के उन दिनों को स्वाभाविक ही मधुमास की उपाधि से विभूषित किया गया होगा। प्रेम जलधि से संसार अभिभूत हो गया होगा, तो प्रकृति श्रृंगार कर उठी होगी और जनमानस उल्लसित हो झूम उठा होगा। तदोपरान्त गणना अपरिहार्य हुई और दिन, सप्ताह, पक्ष, सम्वत्सर के साथ कालबोध भी गहन होता गया। कहावत है कि इतिहास का बोध एवम् स्मृति भी प्रखर हुये, तो सम्वत्सर की अवधारणा फलीभूत होने लगी।
ऐतिहासिक उल्लेख अनुसार इसका नाम उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के नाम पर अस्तित्व में आया। पश्चिम एवम् उत्तर भारत की सीमाओं से शक और हूण आदि बाह्य आक्रांताओं ने भारत के कई प्रांतों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। सिंध से सौराष्ट्र, गुजरात और महाराष्ट्र में विस्तार करते हुये दक्षिणी गुजरात होते हुये शकों ने उज्जयिनी पर आक्रमण किया।शकों ने सम्पूर्ण उज्जयिनी का पूर्णतः विध्वंस कर दिया। जब इनके उत्पीड़न से प्रजा त्राहिमाम कर उठी, तो मालवा के शासक विक्रमादित्य के नेतृत्व में राजशक्तियाँ ने एकजुटता के साथ आक्रांताओं को खदेड़ दिया। राजा विक्रमादित्य के शौर्य व युद्ध कौशल पर अनेक प्रशस्ति लेख और शिलालेख लिखे गये कि कैसे ईसा पूर्व 57 में शकों को सम्राट विक्रमादित्य ने पराजित किया। विक्रमादित्य की जयगाथा का उल्लेख अरबी कवि जरहाम किनतोई ने 'सायर-उल-ओकुल' में किया है।
सम्राट पृथ्वीराज के समय तक सभी भारतीय शासक विक्रमादित्य के पदचिन्हों पर शासन व्यवस्था संचालित करते रहे। कालांतर में यह सर्वमान्य नहीं हो सकी, क्योंकि एक तो नये शासक और उनकी अपनी रीति-नीति, दूसरे ज्योतिषियों द्वारा सम्पादित अभिनव प्रयोग। सूर्य सिद्धान्त के अनुसार पर्वों, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण का गणित इसी सम्वत्सर से प्रकट हुआ, जिसमें एक दिन का भी अन्तर नहीं होता। भारतीय परम्परा के अनुसार, नव सम्वत्सर पर कलश स्थापित कर नौ दिन का व्रत संकल्प धारण कर शक्ति एवम् पराक्रम की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की जाती है। साधक इन दिनों तामसिक भोजन एवम् मादक पेय पदार्थों का परित्याग भी कर देते हैं।
ब्रह्म पुराण के अनुसार, ब्रह्मा जी ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही ब्रह्माण्ड का सृजन किया था। इसी तिथि को 'प्रवरा तिथि' भी कहा गया है। मान्यता है कि 'प्रवरा तिथि' को धार्मिक, सामाजिक, व्यावसायिक तथा राजनीतिक कार्य बिना मुहूर्त देखे भी आरम्भ किये जा सकते हैं। 'प्रवरा तिथि' की मान्यता कुछ मुहूर्तों के रूप में आज भी प्रचलन में है, यथा- वर्ष प्रतिपदा, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, अक्षय तृतीया अर्थात् वैशाख शुक्ल तृतीया और विजया दशमी अर्थात् आश्विन शुक्ल दशमी।
🛡️विशिष्ट आधुनिक-कालीन सन्दर्भ🛡️
विक्रम संवत के दो हजार वर्ष व्यतीत होना इतिहास की प्रमुख घटना थी। इस दो हजार वर्ष की दीर्घ यात्रा में भी भारत के शौर्य एवम् प्रतिभा ने जो प्रतिमान स्थापित किये, वे काफी हद तक समय के अनुरूप हैं। यह कम गर्व का विषय नहीं कि विक्रम संवत संसार के समस्त संवतों से अधिक प्राचीन है। वस्तुतः विक्रम, कालिदास और उज्जयिनी गर्व के विषय हैं। स्वर्गीय पं. सूर्य नारायण व्यास ने एक मासिक पत्र 'विक्रम' प्रारम्भ किया। कालिदास समारोह आरम्भ होने से पूर्व उन्होंने विक्रम के लिये कुछ संकल्प लिये थे जो थे- विक्रम के नाम पर ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना जो साहित्य, शिक्षा और संस्कृति की त्रिवेणी हो। इस योजना में महाराजा जीवाजीराव सिंधिया का योगदान रहा। वीर सावरकर और के.एम. मुंशी ने इस योजना का प्रारूप विस्तृत रूप से प्रकाशित किया और सहयोग जुटाया। रवीन्द्रनाथ टैगोर और निराला ने भी 'विक्रम' पर कवितायें रचीं। हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष के समर्थन-सहयोग से नवचेतना का प्रसार हुआ। ठीक उसी समय जिन्ना ने उत्सव का विरोध किया। सरकार सचेत हो गयी। उसे विद्रोह का आभास हुआ, क्योंकि एक साथ 114 देशी महाराजा एकत्रित हो रहे थे। हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव के लिये कोई स्थान नहीं था, किन्तु जिन्ना के कारण विकार उत्पन्न हो गया। पंडित व्यास ने भोपाल के नवाब को समारोह आयोजन हेतु पत्राचार किया। प्रायः उसी समय निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट ने 'विक्रमादित्य' चलचित्र का निर्माण किया जिसके सम्वाद, पटकथा और गीत-लेखन का कार्य भी उन्होंने स्वयं ही किया। चलचित्र में मुख्य भूमिका पृथ्वीराज कपूर ने निभाई। बाद के दिनों पृथ्वीराज कपूर ने 'कालिदास समारोह' में स्वयं नाट्य प्रस्तुतियाँ भी दीं।
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