🌳सकारात्मक ऊर्जा कि जड़ें🌳
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हमारे प्राचीन वेद, पुराण आदि ग्रन्थों में कल्प वृक्ष नामक एक ऐसे महाकाय वट का उल्लेख मिलता है, जिसकी प्राप्ति सागर मंथन के समय चौदह रत्नों सहित हुई थी। इन रत्नों में से कल्प वृक्ष को देवेन्द्र को प्रदान किया गया था, जिन्होंने इस वृक्ष की स्थापना हिमालय की उत्तर दिशा में स्थित सुरकानन में की। कल्प वृक्ष को देवताओं के अद्भुत वृक्ष के रूप में मान्यता प्राप्त है। नारद पुराण में वर्णित है कि कल्प वृक्ष पर साक्षात भगवान बालमुकुंद विराजते हैं। मान्यता है कि कल्प वृक्ष की छत्रछाया में बैठकर पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान की पूजा-अर्चना करने और वृक्ष के तने पर मौली बाँधकर तीन या सात बार प्रदक्षिणा करने से श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनायें तो पूर्ण होती ही हैं, बार-बार जन्म एवम् मरण के बंधन से भी मुक्ति मिल जाती है।
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देवताओं के अतिप्रिय कल्प वृक्ष को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, यथा-कल्प द्रुप, कल्प तरु, सुर तरु, देव तरु, कल्प लता आदि। पदम् पुराण के अनुसार, पारिजात वृक्ष ही कल्प वृक्ष है। वहीं नारद पुराण के अनुसार, कल्प वृक्ष को सतयुग में वट, त्रेता में वटेश्वर, द्वापर में कृष्ण तथा कलियुग में पुराण पुरुष के नाम से भी जाना गया।
इस्लामिक धार्मिक साहित्य में भी तूबा नामक ऐसे ही वृक्ष का वर्णन किया गया है, जो स्वर्ग का उपवन कहलाता है। नारद पुराण में कहा गया है कि इस वृक्ष को कल्प वृक्ष इसलिये कहा गया है, क्योंकि इसकी आयु एक कल्प है।
एक कल्प चौदह मनवन्तर का होता है और एक मनवन्तर तीस करोड़ चौरासी लाख अड़तालीस हजार वर्षों का होता है। यही कारण है कि कल्प वृक्ष कल्पांत तक भी नष्ट नहीं होता। आज भी भारत के राँची, अल्मोड़ा, काशी, बाराबंकी, बस्ती आदि स्थानों और दक्षिण अफ्रीका व ऑस्ट्रेलिया में हजारों वर्ष प्राचीन कल्प वृक्ष मौजूद हैं। अपने भीतर अपार सकारात्मक ऊर्जा का भण्डार संजोये और अनेक औषधीय गुणों से प्रचुर कल्प वृक्ष को एक परमार्थी वृक्ष कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी॥
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