🇮🇳एकता, समानता और गरिमा का गणतंत्र🇮🇳
भारत में 19वीं शताब्दी के राजनीतिक विमर्श में राजनीतिक मुद्दों के बजाय सामाजिक मुद्दों पर जोर था। वर्ष 1927 से ही देश में भारत की स्वतंत्रता के बारे में गहन विचार-विमर्श होने लगा था। भविष्य में भारत को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखने वाले बाल गंगाधर तिलक थे, जिन्होंने कहा था, ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ वह भारतीय समाज की अनेक गड़बड़ियों और विरोधाभासों से अवगत थे, इसके बावजूद उन्होंने देश की आजादी को पहला लक्ष्य माना और कहा कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम आजादी के बाद भी हो सकता है।
वर्ष 1927 तक कांग्रेस नेतृत्व में अंग्रेजों से औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस) की मांग पर आम सहमति थी। यानी वे चाहते थे कि आंतरिक मामलों में भारतीयों को स्वशासन का अधिकार दिया जाए, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका को प्राप्त था।
वर्ष 1928 में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने स्वशासन के मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व में व्याप्त सर्वसम्मति पर सवाल उठाते हुए देश की स्वतंत्रता पर जोर दिया। सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू जैसे युवा नेताओं ने औपनिवेशिक स्वराज्य को साम्राज्यवाद की निशानी मानते हुए खारिज कर दिया। नेहरू ने 1927 में यूरोप और तत्कालीन सोवियत संघ के व्यापक दौरे के बाद औपनिवेशिक शोषण के बारे में स्पष्टता से अपने विचार रखे थे। ब्रुसेल्स में उन्होंने उपनिवेश-विरोधी एक बैठक में भाग लिया, जिसमें लैटिन अमेरिका, एशिया और अफ्रीका से प्रतिनिधि आए थे। सोवियत संघ ने उन्हें बेहद प्रभावित किया, जहां असमानता का नामोनिशान नहीं था। गांधी जी इस बदलाव को गौर से देख रहे थे।
उन्होंने नई पीढ़ी में वाम रुझानों और खासकर महाराष्ट्र में (गुजरात तब बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था) वस्त्रोद्योग के कामगारों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी के बढ़ते असर को देखा। नई विचारधाराओं को कांग्रेस में समाहित करने के लिए गांधी जी ने नेहरू को नया अध्यक्ष मनोनीत किया। उसी दौरान साइमन कमीशन (1927) का कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा उदारवादियों-सब ने विरोध किया, क्योंकि उसमें एक भी भारतीय प्रतिनिधि नहीं था और न ही इसमें भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने का वादा था। दिलचस्प यह है कि नेहरू रिपोर्ट (1928) में भी पूर्ण स्वतंत्रता के बजाय औपनिवेशिक स्वराज्य की मांग की गई थी। महात्मा की रणनीति काम आई।
लेकिन भगत सिंह और उनके साथियों की नायकोचित वीरता से देश में एक अप्रत्याशित मोड़ आया। 31 दिसंबर, 1929-1 जनवरी, 1930 को लाहौर में नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का फैसला किया। यह प्रस्ताव गांधी जी द्वारा तैयार और पारित किया गया। इसमें बताया गया था कि ब्रिटिश राज ने भारत को आर्थिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से कितना नुकसान पहुंचाया है। पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य के साथ पहली बार 26 जनवरी को मनाया गया गणतंत्र दिवस बेहद सफल रहा था।
सरकार की खुफिया रिपोर्ट में बताया गया था कि इसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। पंजाब में इसके प्रति सबसे अधिक उत्साह था। अमृतसर से गांधी जी के एक मित्र ने उन्हें पत्र लिखा था कि ग्रामीण इलाकों में स्वतंत्रता दिवस के प्रति जो उत्साह दिखा, वह अभूतपूर्व था। लाहौर से एक दूसरे कांग्रेसी ने भी यही लिखा। इस सफलता से गांधी जी को महसूस हुआ कि अंग्रेजों के खिलाफ नए नागरिक अवज्ञा आंदोलन की जरूरत है। और इस तरह 1930 में उन्होंने नमक सत्याग्रह की शुरुआत की। लेकिन पांच मार्च, 1931 को वायसराय इरविन और गांधी जी के बीच समझौता हुआ, जिसके बाद महात्मा ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन को मुल्तवी कर दिया।
चूंकि अगले गोलमेज सम्मेलन में भारत की आगामी सांविधानिक स्थिति के बारे में फैसला लिया जाना था, इसलिए कांग्रेस की उसमें मौजूदगी सुनिश्चित की गई। लेकिन वहां भारत के औपनिवेशिक स्वराज्य पर भी बात नहीं हुई, जो कांग्रेस के लिए असहज करने वाली स्थिति थी। कांग्रेस में इस पर गहरी निराशा छा गई। 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट में भी भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने का कोई वादा नहीं किया गया। ग्रेट ब्रिटेन में तब कंजर्वेटिव पार्टी की सरकार थी और उसने लेबर पार्टी और उसके उदार सांसदों द्वारा भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने के वादे को खारिज कर दिया।
मार्च, 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी को चिट्ठी में लिखा, ‘पूर्ण स्वराज्य के मुद्दे पर दबाव डालने का समय आ गया है।’ बोस का मानना था कि वैश्विक संकट ने भारत के लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा कर दी है, जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने के लिए ब्रिटेन को सीधे-सीधे निशाना बनाया जा सकता है। लेकिन महात्मा गांधी ने बोस का वह प्रस्ताव खारिज कर दिया, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि यह ‘अहिंसक जन आंदोलन’ शुरू करने का सही समय नहीं है।
1940 की गर्मियों में वायसराय ने घोषणा की कि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत को स्वशासन पर आधारित औपनिवेशिक स्वराज्य दे दिया जाएगा, पर गांधी जी ने वायसराय का यह प्रस्ताव खारिज कर दिया। वह चाहते थे कि युद्ध के बाद ब्रिटेन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करे। भारत छोड़ो आंदोलन गांधीजी के उसी आंदोलन का मिला-जुला रूप था, जिसकी शुरुआत उन्होंने 1929 में की थी।
लेकिन तब से अब तक 26 जनवरी को पूर्ण स्वराज के रूप में मनाकर स्वतंत्रता की उम्मीद को जिलाए रखा गया था। ऐसे में, यह स्वाभाविक ही था कि भारतीय संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू किया जाता, क्योंकि गणतंत्र के बिना, जिसमें एकता, गरिमा और समानता की भावना हो, स्वतंत्रता अधूरी होती।
साभार:अमर उजाला, 26 जनवरी 2020(रवि.)
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