Pages

Friday, April 10, 2020

'कोरोना का सामरिक पक्ष'

कोरोना का सामरिक पक्ष


🚨कोविड-19 के विषाणु प्रसार के पृष्ठ में भिन्न-भिन्न विचार सामने आ रहे हैं। एक ओर कहा गया कि चीन ने महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा में यह वायरस फैलाया, तो दूसरी ओर, इसके पीछे अमेरिकी फार्मा उद्योग का षड्यंत्र बताया गया। प्रश्न यह है कि जैविक आक्रमण जैसी स्थिति से निपटने में भारत की क्या तैयारी है??




चिकित्सा विशेषज्ञ दावा करते आये हैं कि कोरोना वायरस वुहान के पशु बाजारों में बिकने वाले जानवरों से फैला। लेकिन कम ही लोगों को ज्ञात है कि वुहान चीन के एकमात्र और चतुर्थ स्तर की उच्चतम माइक्रोबायोलॉजी प्रयोगशाला के लिये भी जाना जाता है।
संजीव शुक्ला ने एक अंग्रेजी दैनिक के अपने ब्लॉग में लिखा है कि गत वर्ष अगस्त में कनाडा पुलिस ने विन्नीपेग (जहाँ कनाडा की एकमात्र चौथे स्तर की माइक्रोबायोलॉजी लैब है) में बौद्धिक सम्पदा चुराने के आरोप में एक चीनी दम्पति को गिरफ्तार किया गया, वे दोनों वुहान स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी का भ्रमण भी कर चुके थे। संजीव शुक्ला ने भी बताया कि चीनी सेना के जनरल झैंग शिबो ने अपनी पुस्तक 'वार'स न्यू हाई लैंड' (2017) में नस्लीय जैविक हमलों का उल्लेख किया। उससे पहले 2015 में चाइनीज एकेडमी ऑफ मिलिट्री मेडिकल साइंसेज के उपाध्यक्ष हे फुचु ने युद्ध की नव रणनीतिक ऊँचाई के रूप में जैविक वस्तुओं को उद्धृत किया। इसे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के 2017 के उस कथन से जोड़ा जाये, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि वह चीन को 2035 तक शीर्ष स्तर का नवोन्मेषी और दुनिया को प्रभावित करने वाला अग्रणी राष्ट्र बनाने चाहते हैं तो क्या निहितार्थ प्रकट होते हैं??
चीन वर्तमान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और वह अपनी सैन्य क्षमताओं को अनवरत दृढ़ कर रहा है, परन्तु जैव-रासायनिक युद्ध क्षमता के मोर्चे पर वह पश्चिमी देशों के स्तर पर नहीं पहुँच पाया है।
एक अंग्रेजी समाचारपत्र में मुद्रित लेख के अनुसार, चीन इस समय पाँच जैव-रासायनिक शस्त्र प्रयोगशालाओं की स्थापना में संलग्न है, जबकि अमेरिका, यूरोप, रूस और ऑस्ट्रेलिया में ऐसी करीब 50 प्रयोगशालायें संचालित हैं अथवा निर्माणाधीन हैं। लेकिन इबोला या मार्सबग जैसे भयानक विषाणुओं का अध्ययन देश में वायरस का आयात किये बिना सम्भव नहीं है। और अब ऐसी सूचनायें भी हैं कि कैसे चीनी वैज्ञानिकों को अमेरिका में प्रयोगशालाओं से सूचना व जैव रासायनिक सामग्री चुराने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। विगत सप्ताह अमेरिकी न्याय विभाग ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर चार्ल्स लेइबर की वुहान विश्वविद्यालय के साथ सम्बद्धता के कारण गिरफ्तारी की, उसे 50000 डॉलर व अन्य व्ययों के लिये 158000 डॉलर प्रतिमाह मिलते थे। चार्ल्स अन्य वैज्ञानिकों को आकर्षित करने के लिये लाखों डॉलर का एक अभियान भी चला रहा था, ताकि वे अपनी अनुसन्धान विशेषज्ञता चीन से साझा करें। एक और चीनी नागरिक जेंग झाओ जैंग को तब गिरफ्तार किया गया, जब वह चीन जाने के लिये विमान में सवार था। उसके सामान में से अमेरिकी विश्वविद्यालय के अनुसन्धान केन्द्र से चुराई गयी जैविक सामग्रियों की 21 शीशियाँ बरामद की गईं। हाल ही अमेरिकी अटॉर्नी जनरल ने चीन को अपना प्राथमिक शत्रु तक करार दिया था।
लेकिन अब पश्चिमी दुनिया में हजारों संक्रमितों की मृत्यु यूरोपीय देशों के लिये भी चिन्ताजनक है कि यह सब दुनिया में सर्वोच्च शक्ति के रूप में उभरने के निर्मम चीनी एजेंडे का हिस्सा हो सकता है। यद्यपि चीन पहले ही वायरस को चीन में लाने और उसकी अर्थव्यवस्था को पंगु कर देने के लिये अमेरिका को दोषारोपित कर चुका है। पहले यह आरोप भले ही ठीक प्रतीत होता हो, क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था को लगभग 348 अरब डॉलर और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को करीब 15 अरब डॉलर की हानि होने का अनुमान था। पर अब जब दुनिया वायरस से जूझ रही है, तब चीनी अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित होने लगी है।
जो महानुभव तर्क देते हैं कि चीन में भी भारी संख्या में लोग हताहत हुये, तो उसका जवाब यह है कि चीन ने अपने यहाँ इस वायरस को फैलने दिया। वुहान में वायरस की पहली रिपोर्ट आने के बाद बीजिंग ने यह सुनिश्चित हो जाने के लिये दो हफ्तों तक प्रतीक्षा की कि कोरोना वायरस एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैल रहा है। क्या वुहान में लोग आधुनिक दौर के गिनपिग थे? जिन डॉक्टरों ने वायरस के प्रति आगाह करना चाहा, उनकी आवाज़ दबा दी गई। स्मरण रखना चाहिये कि 1958 से 1962 के मध्य चीन में माओ के 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' के दौरान 4.5 करोड़ लोग काल कलवित हो गये। पर माओ उस नरसंहार को कोई परवाह नहीं थी।
दूसरी तरफ भारतीय मूल के अमेरिकी डॉ. शिवा जैसों का तर्क है कि अमेरिकी फार्मा उद्योग द्वारा विषाणुओं को छोड़ा गया है, जिन्हें दवा की बिक्री के साथ लाभ अर्जित करने की दरकार है। उन्होंने जो भय उत्पन्न किया है, वह हम सबको को वायरस ने निपटने के लिये टीकाकरण को प्रेरित करेगा। चूँकि मानव देह सहस्त्रों प्रकार के वायरस के प्रति संवेदनशील है, इसलिये इन अति सूक्ष्मजीवियों से बचाव हेतु कोई एक टीका कारगर नहीं हो सकता। पर अमेरिकी दिग्गज कम्पनियाँ नियमित रूप से टीकाकरण को हमारा प्रारब्ध बना देंगी।
ऐसे में, यह अत्यंत प्रासंगिक प्रश्न है कि क्या चीन या अमेरिका इस प्रकार की कुटिल योजना पर कार्यरत हैं। इससे निपटने के लिये हमारी क्या तैयारी है? वैसे तो प्रधानमंत्री महोदय के नेतृत्व में देश ने अभी तक कोविड-19 से डटकर मोर्चा लिया है। पर जैव रासायनिक हमले से निपटने की हमारी क्या तैयारी है? 
पूर्व डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया ने लिखा था यद्यपि भारतीय सेना को रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु आक्रमणों के विरुद्ध तत्पर रहने हेतु प्रशिक्षित किया गया है, पर ये कार्यक्रम संसाधनों के अभाव के चलते ठण्डे बस्ते में हैं। हमारी विशाल जनसंख्या छितरी हुई है, स्वास्थ्य सेवायें डंवाडोल हैं, कनेक्टिविटी उन्नत नहीं है और हर राज्य सरकार अपने-अपने तरीके से जूझ रही है। ऐसे में यदि जैव-रासायनिक आक्रमण होता है, तो उसके परिणाम भीषण हो सकते हैं।।






Disclaimer: All the Images belong to their respective owners which are used here to just illustrate the core concept in a better & informative way.

No comments:

Post a Comment

Thanks for visiting. We are committed to keep you updated with reasonable & authentic facts.