रोग-शोक विनाशक हैं माँ शैलपुत्री
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माँ भगवती के प्रथम स्वरूप को शास्त्रों में शैलपुत्री के नाम से सम्बोधित किया गया है। शैलपुत्री माता सती (पार्वती) का ही रूप हैं। माता सती के पिता, प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ आयोजित कराया और उसमें समस्त देवी-देवताओं को आमन्त्रित किया, किन्तु भगवान शिव और माता सती को निमन्त्रण नहीं भेजा। माता सती को जैसे ही यह ज्ञात हुआ, तो वे भगवान शिव के पास पहुँची और यज्ञ में जाने का मन्तव्य
प्रकट किया। भगवान शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमन्त्रण के यज्ञ में जाना श्रेयस्कर नहीं होगा, लेकिन माता सती की इच्छा के कारण भगवान शिव ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। माता सती जब अपने पिता दक्ष के यहॉं पहुँची, तो वहॉं परिजनों ने उनका उपहास उड़ाया और किसी ने भी ठीक से उनसे बात तक नहीं की। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को अत्यन्त कष्ट पहुँचा। उन्होंने देखा कि वहाँ भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने भगवान शिव के प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर उनका हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा, भगवान शिव की बात न मान, यहाँ आकर बहुत बड़ी गलती की है। माता सती अपने पति के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करवा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपनी देह को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वे 'शैलपुत्री' के नाम से विख्यात हुईं। हेमवती भी उनका ही नाम है। माँ शैलपुत्री की आराधना से भक्तों को चेतना का सर्वोच्च शिखर प्राप्त होता है, जिससे शरीर में स्थित 'कुण्डलिनी शक्ति' जागृत होकर रोग-शोक रूपी दैत्यों का विनाश करती है।
माँ दुर्गा के प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री मानव के मन पर आधिपत्य रखती हैं। जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने की शक्ति माँ शैलपुत्री ही प्रदान करती हैं। इनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में कमल पुष्प रहता है। इनका वाहन वृषभ (बैल) है।
या देवी सर्वभूतेषु प्रकृति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धशेखरम, वृषारूढांं शूलधरां शैलपुत्रींं यशस्विनीम्।।
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